Wednesday, 17 September 2008

क्यों


रक्त के रिश्ते

रिसते - रिसते

रिश्तों के रक्त

aahiste - आहिस्ते

हृदय के मस्तिस्क

चलते - चलते

मस्तिस्क के हृदय

बहते - बहते

क्यों

जीर्ण हो गयी

कल तक थी

वो प्राण

आज

प्राण विदीर्ण हो गयी

ममता की पुकार

प्यारी चीत्कार

नन्ही की प्यार

होसलें लाचार

अंध विश्वास दे तुझे

अपितु तू सुन पायेगा

उम्र की परिस्थितियां

पलते - पलते

परिस्थितियों की उम्र

ढलते - ढलते

परिवार की मूल्य

कमते - कमते

मूल्य की परिवार

बढ़ते - बढ़ते

क्यों

जीर्ण हो ....कल तक ....

आज ... प्राण विदीर्ण हो ......

वरदान अभिशाप का

पाप पश्चाताप का

घमंड नम्र का और

कर्म परतंत्र का

संभावित बल दे तुझे

अपितु

तू लौट आएगा

अंतर्मन के बहिर्मन

कहते - कहते

बहिर्मन के अंतर्मन

गढ़ते - गढ़ते

द्वंद के युग

खिलते - खिलते

युग के द्वंद

लीलते - लीलते

क्यों

जीर्ण हो गयी

कल तक थी

वो प्राण

आज प्राण विदीर्ण हो गयी .

सुन तुझे ही ...


सुनते है , तुम सुनते हो

वरण कब

भावनावों के वेग के उपरांत

यातनाओं के उद्वेग के फलांत

कर्तव्यों के संवेद के नितांत

अधिकारों के नवेद के वेदान्त

आवश्यकता क्या,

तुम्हे स्मरण करने की

हमें जागरण करने की

तुम्हे विचरण करने की

हमें तर्पण करने की

आओ आज,

तुम भी बैठो, हम भी बैठे

सहमती बनायें

कर्म पर फल तुम दो

फल पर कर्म हम दे

वेदों का उपदेश तुम दो

उपदेशों का वेद हम दे

क्यों,

पुनः

श्रेष्ठता की बाढ़

समानता की महीन धागे मैं खो गई

हृदय से निश्चिंत

परन्तु मस्तिस्क से विचलित हो गई

चलो,

बैठक संपन्न करते है

हम

तुम्हारे असीमित पिराएँ है

अमित क्रिराएँ हैं

ख़ुद हमें सिमटने दो

जाओ तुम

दर्शन योग्य नभ मैं खो जाओ

हमें

धारा के ताप में बो जाओ

जाओ ...........जाओ.......





















































































































Sunday, 20 July 2008

मेरे हिस्से में माँ आयी

किसी के हिस्से में मकान आया, किसी के हिस्से मे दुकान आयी ...... मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी । माँ मेरे हिस्से मे तू आ तों गयी , मै खुशी से इतराना भी चाहता हूँ लेकिन खवाहिश है तुम्हारी वही गोद मिले जो तुने मेरे लिए बचपन में पालना सा बना रखा था । कब तेरी गोद मै चला जाता ... कब नींद आ जाती... पता ही नही चलता । बस तेरी गोद और हाँ ... वो तेरा बालों को इस तरह फेरना की निंदिया अपनी दुनिया मै ले चली जाती , याद आ रहा है। आज तुझे मेरी गोद की जरुरत है ...तुझे एक पालना चाहिए... सर पर हाथ फेरने वाला एक वही हाथ चाहिए जो तेरे गोद को तरपता था। आज तू कुछ अस्वस्थ्य है , तुझे मेरे साथ की ...बाँहों की ... कंधे की ...भावनाओ की ...सख्त जरुरत है लेकिन मेरे हिस्से मे तों तू है, खुशनसीब हूँ , वो भी तेरा ही आशीर्वाद है। लेकिन वही खुशी का हिस्सा मैं तुझमें देखता हूँ तों तू बदनसीब दिखती है शायद ये मेरे कर्तव्यों का ही फल है। मुझे पता है तू मुझे बुलंदियों पर देखना चाहती है .... तू कितनी नादाँ है मेरी माँ ... बुलंदियों को तों मैं छू सकता हूँ लेकिन चाहत तों आसमान छूने की है और जब तक तू गोद मे नही उठाएगी मै कैसे आसमान छुंगा। मुझे तेरी गोद की जरुरत है। आसमान छूने के लिए नही तेरे प्यार ... स्नेह ...और अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए। माँ ...माँ पुकार रहा हूँ , मुझे पता है तू पास नही है। लेकिन फिर भी पुकारता हूँ कोई तों जा मेरी माँ को मेरी तरप का संदेश देगा और वो जान पाए की वो जिसके हिस्से मै है वो उसी का हिस्सा है। माँ ... मै तुझमे ही हूँ और तू मुझमे है।

Friday, 13 June 2008

मै तों हूँ परदेश में संतोष के दूकान पर निकला होगा चाँद

मै तों हूँ परदेश में संतोश्वा के दूकान पर निकला होगा चाँद .....
चाँद उनलोगों को कह रहा हूँ , जो कम से कम उस चाँदनी के तों लायक नही जिसकी मिशाल लोग खुब्सुरुती को ले करते हैं । ये तों वो चाँद है जो चान्दिनियों के फिराक मैं लगे रहते हैं । शायद चाँद का वो हिस्सा है जो हमेसा से खूबसुरुती को बदरंग करता रहा है । इन चांदों से दूर फिलहाल में जमशेदपुर में हूँ ...इसलिए अपने बदसूरत और काबिल चांदों के बारे में कुछ लिख भी पा रहा हूँ , पास रहने पर तों अभी तक इन चांदों ने मुझे अन्धेरिया बस्ती में भेज दिया रहता । अरे यार , ये चाँद कोई और नही मेरे वही दोस्त है जिनके साथ मै भी चन्दनियों के फिराक में संतोश्वा के दुकान पर पहुँच जाता था । अभी भी काम से निपटता हूँ तों अड्डा वही लगता है । ओह , दोस्तों के साथ बिताया वो समय ...हँसी मजाक ...बतकही ...शाम के समय शोम स्टूडियो के बगल में महफ़िल लगाना , याद आता है तों अब सपनो सी लगती दुनिया में खो जाता हूँ । दोस्तों के हमारे ग्रुप को आस पास वाले ग्रुप काबिल ग्रुप कहते थे , शायद आज भी कहते है । उनलोगों ने अभी तक समझा ही नही की ये काबिल आख़िर किस बात पर सीरियस होते है , हर बात पर उनका हँसना और हँसना भी ऐसा वैसा नही , हँसते हँसते लोटपोट हो जाना । वे चिढ़कर हमसे दूर भागते की कही हम पर ही तों नही हंस रहे । साइड ४ वाले तों हमें कभी समझे ही नही । एक साइड ४ का बन्दा , स्मार्ट बन्दा ही हमे समझ पाया । लगता है उसे भी हमारी तलाश थी । क्योकि वो भी तों काबिल ठहरा । वैसे इस काबिल ग्रुप में एक से बढ़कर एक काबिल है और उनकी एक से एक की गयीं हेरात्न्गेज कहानियाँ है । एक एक कर सबकी निशानी , कहानी , जुबानी , दीवानी , मनमानी , बेमानी , परेशानी ......... बताऊंगा । एक बात जरुर कहूँगा मेरे काबिल ग्रुप मैं तों हूँ परदेश में तुम चाँद बन संतोश्वा के दुकान पर निकलते रहना । संतोष भइया , संतोश्वा के लिए हमका माफ़ी दी दो ....... अगली बार काबिल ग्रुप के सरताज मुन्ना - जीतेन्द्र -गुप्ता के बारे में लिखूंगा , जो तीन नही एक ही काबिल है भाई .............

Wednesday, 30 April 2008

क्योंकि तोल्स्तोय और प्रेमचंद के नाम में तो आधुनिक ग्लैमर है नहीं

जयपुर में रहने वाली साहित्यकार मृदुला बिहारी अपने आप में रांची को समेत ke रखी हुई है। शायद जन्मभूमि से अन्दिखे और निभाए रिश्ते का प्रभाव यही होता है। दबे पौं आने और चुपके से चले जाने की उनकी चोरी को आखिर मैंने पकड़ ही लिया। और इसबार उनसे साहित्य और समाज पर खुल के बातें की। प्रस्तुत है उनसे की गयी sakchatkar का कुछ अंश-
प्रश्न - अपने शादी के बाद लिखना शुरू किया लेकिन आप कहती है की यह शौकिया नही था, तब अपने आप को पहचानने में इतनी देर क्यों हो गयी ?
उत्तर - मेरे संस्कार में ही साहित्य है। मेरे माता-पिता प्रकांड विद्वान थे। हमारे यहाँ दिनकर, बेनीपुरी जैसे महान साहित्यकारों का आना-जाना लगा रहता था। १२ साल की उम्र में ही मैंने नामी-गिरामी साहित्य को कई बार पढ़ लिया था। मौलिक विचार तो उसी समय से बनने लगे थे.लेकिन एक बेचेनी सी थी जो लगातार मुझे जह्क्झोरती थी। शादी के बाद यही अनमनापन मुझे लिखने की और प्रेरित किया और उससे मिली संतुस्टी ने मुझे जतला दीया की क्या बेचेनी थी मेरे अन्दर।
प्रश्न- साहित्य और साहित्यकार की जब बात आती है तो यह बात उठाना लाजिमी है की आखिर साहित्य पीढ़ी दर पीढ़ी क्यों पढ़ जाay ?
उत्तर- वर्तमान में यह सवाल बिलकुल सामयिक है। क्योंकि तोल्स्तोय और प्रेमचंद के नाम में तो कोई आधुनिक गलऐमर नहीं है। न ही साहित्य में विज्ञापन है और न ही बड़ी संख्या में साहित्य का स्वाद लेने वाले लोग। साथ ही आज लोगों को समकालीन चेतना चौकाati भी नहीं। लेकिन फिर भी व्यावसायिकता के samannatar हम जैसे रचनाकार रचनावों को अभी भी समाज परिवर्तन का औजार मानते है। कुछ समकालीन लोग इसे साहित्य के प्रति हमें भरम का सीकर भी मान सकते है। लेकिन सच तो आज भी है की कई रचनाकारों की रचना आज भी मानवीय संवेदना बयां करती है।
प्रश्न- आज का यूथ जो ग्लैमर पसंद है, उसकी पसंद किसी खास विषयों तक ही सीमित है और आपके साहित्य में तो कोई ग्लैमर है नहीं। कैसें उन्हें प्रोत्साहित करेंगी साहित्य की ओर?
उत्तर- ऐसी बाट नही है, और कौन कहता है की साहित्य में कोi ग्लैमर नही है। जहाँ तक युवाओं की बात है तो उन्हें टारगेट कर कई किताबें लिखी जा रही है, जो बाज़ार में आते पड़े है.ऐसा नही है की अआज के यूथ को साहित्य में इंटरेस्ट नही है। हम उन्हें जबरदस्ती धकेलना भी नही चाहते। जितनी क्रिअतिविटी और कल्प्नासिलता आज के यूथ मैं है उतनी पुराने लोगों मैं नही है। साहित्य में थोरी रोचकता और सरलता लाकर उन्हें आकर्षित किया जा सकता है।
प्रश्न- ग्लैमarize करने के चक्कर में बीज्नेस हावी होती जा रही है, इसमें संतुलन कैसे आएगा ?
उत्तर- ग्लैमर के साथ-साथ बिजनस तो आएगा ही। और अब कोई प्रेमचंद और ग़ालिब तो है नही जो आनेवाली पीढ़ी के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा डे। इस कारन साहित्य और साहित्यकार कमज़ोर पढ़ रहें है। वैसे भी किसी बडे हिन्दी साहित्यकार ने कहा है की कंजूसी और वादाखिलाफी हिन्दी साहित्यकारों की कमजोरी है। अगर इनपर नियंत्रण पा लिया जाay तो संतुलन खुद ba खुद हो जायेगा।
प्रश्न - साहित्यकारों की सामाजिक जिम्मेदारी क्या होनी चाहिय ?
उत्तर- वही जो एक आदर्श नागरिक की होनी चाहिय।
प्रश्न - आपकी jyadatar rachnaon में नारी शास्क्तिकर्ण पर जोर दिखता है, कोई खास वजह ?
उत्तर- रचनाकार हमेसा नारी पुरुष से ऊपर उठकर काम करता है। हाँ लेकिन में कह सकती हूँ की मेरी उपन्यासों में नारी की जटिल मानसिकता और उसकी द्वंद मुख्य विषय वस्तु होते हैं।

Monday, 28 April 2008

अब विद्वान बोले तो कौन ....

अब विद्वान बोले तो कौन .....
अब विद्वान कौन कहलायेंगे। विद्वता की परिभाषा अब क्या होगी। सदियों से चली आ रही वही पुरानी तुकबंदी करने वाले लोग या आज के नए आएदियाज़वाले बन्दे। संस्कृत और सुध भाषा में बतियाने वाले लोग या बिंदास और गहरी सोच रखने वाले लड़के - लड़कियां। आखिर ऐसा क्यो है की हमारे सोच में परिवर्तन नही आ रहा। भीर भाड़ में जहाँ कोई भाषा या संस्कृत के दो शब्द बोला नही की हम मान बैठे की व्यक्ति कोई विद्वान मालूम पड़ता है। लेकिन ये समझ नही पाए की वो वही रटी रटाई बातें कह रहा है जो हमारे शास्त्रों में लिखी पड़ी है। दम हो तो उनकी arthon को आज के सन्दर्भ में साबित कर बताएं। कितनी उपयोगिता हैं उन श्लोकों शास्त्रों की, वो भी बताएं। मैं हमारे शास्त्रों की उपहास नही कर रहा बल्कि उनलोगों की विद्वता की बपौती का भ्रम todanaa चाहता हूँ, जो अपनी रोज़ी रोटी इसी से चला रहें हैं। अपनी चला रहें है to कोई बात नही, दुःख तो ये हैं की नए लड़कों की काबिलियत और क्रियेतिविती को धत्ता बता रहें है। अब जयादा दिनों तक उनकी दुकान नही चलने वाली और nishchit आयिदियाज़ वाले बन्दे ही विद्वान साबित होंगे.un bando ko salam karen jinhone samaz ko ek nayi soch or disha di hai.kalpna ko hakikat mai badal kar samaz ko juban diya hai.ye samajhna hoga ki professionalism or widwan mein antar hai.jo aajtak widwan kahla rahen wo asal mai apne profession ko nipta rahen hain. naye bandon ne professionlism ki paribhasa badal ker apne andar sari tathyon ko sameta hai.apni dakchta apni mahnet se sidh ki hai.kisi ideas wale bande se ek wichar mang ker dekh le, itni option de dega ki visulise kerna muskil ho jayega.wahi purane widwano se baat kijiye to apko wahi le jane ki koshish karange jinke bare mai wo kuch rate rataye hai.mera to manna hai ki widwan wahi bande hai jo ideas ki bharmar apne sath liye chalte hai or unka socna hamesa english or hindi mai chalta rahta hai.aise bandon ko mera salam.or ek baar phir widwan bole to...idea or ideas wale bande ki jai ho.dunia tumhari or tum hi duniya ke malik ho.

Friday, 25 April 2008

kahane ko जश्ने बहारां हैं ......

कहने को जश्ने बहारां है .....
पत्रकारिता में तो कहने को जश्ने बहारां है। ये कहना है उन लोगों का जो जर्नालिस्म को ग्लैंमर की नज़र से देखते है। पत्रकारों से पूछो तो पता चलेगा की सबका मालिक एक है , संपादक। प्रिंट की बात कर रहा हूँ। फ़िल्म की एक दय्लोग याद आती है ... बोल दिया तो बोल दिया। आज के संपादकों का भी ये फेवेरत दय्लोग है। पत्रकारिता कितनी भी चेंज हुई लेकिन संपादकों की दुनिया में कुछ खास बदलाव नही आया। और न जाने उनके साथ काम करने वाले जुनिएर और सिनिएर क्यों उन्हें एक आदर्श maan लेते है। और khud भी उनके नक्शे कदम पर चलने को तैयार हो जाते हैं। न जुनिएर से बात न कुछ बताने की इक्चा और तो और न ही प्रणाम पाती का जबाब। कमुइनिकासन गैप इतना की कुछ अछा कर दिया तो साबशी तो दूर नज़र मिलाने में भी परेशानी होती है। आख़िर पत्रकारिता में प्रोत्साहन की परम्परा क्यों कम है?
ऐसे नही चलेगा बाबु , कुछ तो करने को पोरेगा mere bigi , kya कर सकते है आप :
१ जुनिएर को थोरा खुलने का मौका दीजिये। बात चित से माहौल को कुश्मिजाज़ बनाये । इससे आपकी भी प्रसंसा होगी और वो वहाँ ढलता जाएगा। जीवन भर आपकी यादों को लिए फिरता रहेगा।
२ एक चीज पूछे तो उसे दो चीज बताने की कोशिश करें
३ संपादक अगर उससे पुच ले की - क्या कर रहे हो, कोई परेशानी तो नहीं, ऐसे कर सकते हो...वैसे भी कर सकते हो , तो संपादक की कुर्सी चोटी नही हो जायेगी।
४ छ्मता तो सिनिएर तुरंत पहचान ही लेते हैं , अगर वो थोरा कम पर रहा है तो भी तो वो आपका सहयोगे है और आपसे कुछ सीखना ही चाहता होगा।
५ जो आपके उपर बीती है वही आप उसपर आजमाने की कोशिश नही करें। भाई थोरा प्रोत्साहित भी कर दिया कीजिये।
६ जुनिएर है तो कुछ गलतियाँ हो ही सकती है, समझने का मौका दीजिये न की अपने सिनिएर को रिपोर्ट कर उसकी शिकायत करें।
सभी प्रोफेशअन में आती बदलाव की बात हम करते है, अब हमें भी बदलna होगा। क्या हम जर्नालिस्म को और उसकी संस्थाओ के माहौल को कुशगवार नही बना सकते।
दलाan per aajkal patrakarita or patrakaron ki baat ho rahi hai, iska matlab ye nahi ki dalaan patrakaron ki bapauti ho gayi hai. kuch or baten karenge....mast or mazedar.