Wednesday, 17 September 2008

सुन तुझे ही ...


सुनते है , तुम सुनते हो

वरण कब

भावनावों के वेग के उपरांत

यातनाओं के उद्वेग के फलांत

कर्तव्यों के संवेद के नितांत

अधिकारों के नवेद के वेदान्त

आवश्यकता क्या,

तुम्हे स्मरण करने की

हमें जागरण करने की

तुम्हे विचरण करने की

हमें तर्पण करने की

आओ आज,

तुम भी बैठो, हम भी बैठे

सहमती बनायें

कर्म पर फल तुम दो

फल पर कर्म हम दे

वेदों का उपदेश तुम दो

उपदेशों का वेद हम दे

क्यों,

पुनः

श्रेष्ठता की बाढ़

समानता की महीन धागे मैं खो गई

हृदय से निश्चिंत

परन्तु मस्तिस्क से विचलित हो गई

चलो,

बैठक संपन्न करते है

हम

तुम्हारे असीमित पिराएँ है

अमित क्रिराएँ हैं

ख़ुद हमें सिमटने दो

जाओ तुम

दर्शन योग्य नभ मैं खो जाओ

हमें

धारा के ताप में बो जाओ

जाओ ...........जाओ.......





















































































































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