Friday, 25 April 2008

kahane ko जश्ने बहारां हैं ......

कहने को जश्ने बहारां है .....
पत्रकारिता में तो कहने को जश्ने बहारां है। ये कहना है उन लोगों का जो जर्नालिस्म को ग्लैंमर की नज़र से देखते है। पत्रकारों से पूछो तो पता चलेगा की सबका मालिक एक है , संपादक। प्रिंट की बात कर रहा हूँ। फ़िल्म की एक दय्लोग याद आती है ... बोल दिया तो बोल दिया। आज के संपादकों का भी ये फेवेरत दय्लोग है। पत्रकारिता कितनी भी चेंज हुई लेकिन संपादकों की दुनिया में कुछ खास बदलाव नही आया। और न जाने उनके साथ काम करने वाले जुनिएर और सिनिएर क्यों उन्हें एक आदर्श maan लेते है। और khud भी उनके नक्शे कदम पर चलने को तैयार हो जाते हैं। न जुनिएर से बात न कुछ बताने की इक्चा और तो और न ही प्रणाम पाती का जबाब। कमुइनिकासन गैप इतना की कुछ अछा कर दिया तो साबशी तो दूर नज़र मिलाने में भी परेशानी होती है। आख़िर पत्रकारिता में प्रोत्साहन की परम्परा क्यों कम है?
ऐसे नही चलेगा बाबु , कुछ तो करने को पोरेगा mere bigi , kya कर सकते है आप :
१ जुनिएर को थोरा खुलने का मौका दीजिये। बात चित से माहौल को कुश्मिजाज़ बनाये । इससे आपकी भी प्रसंसा होगी और वो वहाँ ढलता जाएगा। जीवन भर आपकी यादों को लिए फिरता रहेगा।
२ एक चीज पूछे तो उसे दो चीज बताने की कोशिश करें
३ संपादक अगर उससे पुच ले की - क्या कर रहे हो, कोई परेशानी तो नहीं, ऐसे कर सकते हो...वैसे भी कर सकते हो , तो संपादक की कुर्सी चोटी नही हो जायेगी।
४ छ्मता तो सिनिएर तुरंत पहचान ही लेते हैं , अगर वो थोरा कम पर रहा है तो भी तो वो आपका सहयोगे है और आपसे कुछ सीखना ही चाहता होगा।
५ जो आपके उपर बीती है वही आप उसपर आजमाने की कोशिश नही करें। भाई थोरा प्रोत्साहित भी कर दिया कीजिये।
६ जुनिएर है तो कुछ गलतियाँ हो ही सकती है, समझने का मौका दीजिये न की अपने सिनिएर को रिपोर्ट कर उसकी शिकायत करें।
सभी प्रोफेशअन में आती बदलाव की बात हम करते है, अब हमें भी बदलna होगा। क्या हम जर्नालिस्म को और उसकी संस्थाओ के माहौल को कुशगवार नही बना सकते।
दलाan per aajkal patrakarita or patrakaron ki baat ho rahi hai, iska matlab ye nahi ki dalaan patrakaron ki bapauti ho gayi hai. kuch or baten karenge....mast or mazedar.

No comments: